कभी स्कूल नहीं गई, पर मिनटों में ठीक करती हूं एसी-माइक्रोवेव और मिक्सर, सीता बनी ‘Electrician Devi’

मैं सीता देवी, बिहार के गया जिले की पहली और अकेली महिला इलेक्ट्रीशियन (Electrician Devi) हूं। जिस शिद्दत से मैंने को घर को सजाया-संवारा। पति और बच्चों की देखरेख की। मैंने अपनी गृहस्थी की गाड़ी को पटरी पर लाने के लिए उतनी ही मेहनत से फुटपाथ पर बैठकर इलेक्ट्रॉनिक सामान के पुर्जे उधेड़कर उनकी मरम्मत की है।

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'Electrician Devi'
कभी स्कूल नहीं गई, पर मिनटों में ठीक करती हूं एसी-माइक्रोवेव और मिक्सर, सीता बनी 'Electrician Devi'

दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार मैं सीता देवी, बिहार के गया जिले की पहली और अकेली महिला इलेक्ट्रीशियन (Electrician Devi) हूं। जिस शिद्दत से मैंने को घर को सजाया-संवारा। पति और बच्चों की देखरेख की। मैंने अपनी गृहस्थी की गाड़ी को पटरी पर लाने के लिए उतनी ही मेहनत से फुटपाथ पर बैठकर इलेक्ट्रॉनिक सामान के पुर्जे उधेड़कर उनकी मरम्मत की है।

जब काम शुरू किया, तब घर-परिवार के लोगों का विरोध सहा। आसपास के लोगों और राहगीरों की उल-जलूल टिप्पणियां झेलीं। बच्चों को पालने की खातिर मैंने किसी को जवाब नहीं दिया, किसी के कहे का बुरा नहीं माना। मैं बिजली के टूटे तारों को जोड़कर और पुराने पुर्जों को बदलकर लोगों की खराब एलईडी बल्ब, मिक्सी, माइक्रोवेव, पंखा, एसी और कूलर संवारती रही। कभी जो लोग ताने मारते थे, आज वही लोग मेरी प्रशंसा कतरे हैं। पढ़िए, 46 साल की सीता देवी की गृहिणी से ‘इलेक्ट्रीशियन देवी’ बनने तक की कहानी, उन्हीं की जुबानी…

पिता सब्जी बेचते थे। मां ने मुझे जन्म देते ही दुनिया छोड़ दी। चार भाई-बहनों में से मैं सबसे छोटी थी। मां नहीं थी, इसलिए हम में से कोई भी बहन पढ़-लिख नहीं सकी। 18 साल की हुई थी कि शादी कर दी गई। शादी के बाद गया में पति जितेंद्र मिस्त्री के साथ रह रही थी। मेरे पति साल 1985 से गया जिले के काशीनाथ मोड़ स्थित इसी फुटपाथ पर इलेक्ट्रिशियन का काम करते थे।

मैं एक बेटा और एक बेटी की मां बन चुकी थी। मैं घर और बच्चों को संभालती। पति हर रोज कमाकर लाते। दो वक्त का खाना सब साथ बैठकर खाते। जमीन नहीं थी। बड़ा मकान नहीं था, लेकिन भरपेट खाने में किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। जिंदगी की गाड़ी पटरी पर दौड़ रही थी।

आज से तकरीबन 23-24 साल पुरानी बात है। पति की तबीयत बिगड़ी तो उनको लेकर अस्पताल पहुंची, जहां डॉक्टर ने उनको लिवर संबंधी समस्या बताई। उनकी तबीयत इतनी खराब थी कि वे काम करने की कंडीशन में नहीं थे। डॉक्टर ने भी उनको बेड रेस्ट की सलाह दी थी।

पति का काम पूरी तरह बंद हो गया। पति ने अपने साथ दुकान पर एक और कारीगर रखा था, जिसे हर महीने 3000 रुपये सैलरी देते थे। मेरे पति बीमार थे, तो वो कारीगर जो भी काम आता, उसका सारा पैसा खुद ही रख लेता। सैलरी के पैसे मांगने भी घर आ जाता। जमा-पूंजी पति के इलाज में लग गई। पति के इलाज का खर्च और 6 लोगों के पेट भरने के लिए दो वक्त के खाने की किल्लत होने लगी। बीमार पति और बच्चे छोटे, इसलिए लोगों ने उधार देने से भी मना कर दिया।

घर की दहलीज लांघी तो सुनने पड़े ताने

उस वक्त मैंने घर की दहलीज लांघकर पति की दुकान संभालनी शुरू की। शुरुआत में अपने बीमार पति और छोटा बेटा, जो उस वक्त एक साल का था, दोनों को साथ लेकर दुकान पर आती। कारीगर को हटा दिया। उनको पास बिठाकर खराब इलेक्ट्रॉनिक सामान संभालती। पति जैसे-जैसे बताते जाते, मैं वैसे-वैसे करती जाती। जल्द ही मैं एलईडी बल्ब, मिक्सर-ग्रांडर, पंखा, कूलर, इनवर्टर और एसी समेत तमाम इलेक्ट्रॉनिक सामान की रिपेयरिंग करना सीख गई। काम करते-करते इस काम में माहिर भी हो गई।

न मौसम की परवाह की, न समाज की सोच की

मुझे मेरे बच्चों को पालना था। इसलिए चिलचिलाती धूप, हांड कंपाने वाली सर्दी, बर्फीली हवा और मर्दों वाली सोच की परवाह किए बिना सिर पर आंचल लिए अपने काम में जुटी रही। घर का काम निपटाती। बच्चों को स्कूल भेजती और फिर दिनभर इलेक्ट्रीशियन का काम करती। सुबह से शाम तक बैठकर 500 से 1000 रुपए तक कमा लेती हूं। इलेक्ट्रीशयन का काम कर न सिर्फ परिवार को भरण-पोषण किया, बल्कि बच्चों को पढ़ाया-लिखाया और बड़ी बेटी की शादी भी कर दी।

मैं कभी स्कूल नहीं गई थी, इसलिए मैं चाहती थी कि मेरे बच्चे पढ़-लिखें। बड़ी बेटी मधु की 12वीं तक पढ़ाकर उसकी शादी कर दी। बड़ा बेटा मनोहर ने BA तक पढ़ाई कर ली। छोटा बेटा मुकेश 10वीं में है और छोटी बेटी काजल 6वीं में है। अब बेटे भी दुकान पर आकर हमारा हाथ बंटाते हैं।

CM, DM और कई संस्थाओं ने किया सम्मानित

शुरुआत में जितना विरोध हुआ, बाद में उतना ही सम्मान मिला। साल 2010 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सम्मानित किया, जिसमें प्रमाण पत्र और 50 हजार रुपए मिले। जिलाधिकारी वंदना श्रेयसी ने भी महिला सशक्तीकरण की मिसाल बताकर सम्मानित किया। हालांकि, मैं कई सालों से शहर में सरकारी दुकान के लिए प्रयास कर रही हूं, लेकिन अभी तक मुझे एक दुकान नहीं मिल सकी है। फुटपाथ पर बैठने के चलते कभी आसपास के दुकानदारों को विरोध सहना पड़ता है तो कभी नगर निगम के अधिकारी परेशान करते हैं।

पत्नी सीता की कामयाबी से खुश हूं। वह घर के साथ-साथ मेरा और बच्चों का भी अच्छे से ख्याल रखती है और दुकान को भी अच्छे से चलाती है। जिंदगी में इतने उतार-चढ़ाव आए, लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी। कभी झुंझलाई नहीं। ​ग्राहकों के साथ उसका व्यवहार काफी विनम्र रहता है।
-जितेंद्र मिस्त्री, सीता देवी के पति

बेटे को है मां पर गर्व

सीता देवी के बड़े बेटे मनोहर कहते हैं, ‘मैंने अपनी मां से बिजली का काम सीखा है। मां को घर और बाहर दोनों को संभालते देखा। वे दोनों जगह अपना सौ प्रतिशत देती हैं। दिन में उन्हें कभी भी आराम करने की फुरसत नहीं मिली। अब तक मेरी को कई इनाम मिल चुके हैं। वे ईमानदारी, मेहनत करने के जज्बे और उसूलों से हमें प्रेरित करती हैं। मुझे मेरी मां पर गर्व है।’