क्या Fast Trek Case निर्दोषो के लिए बन रहे है फांसी का फंदा? जानिए! कुछ हैरान करने वाले मामले…

क्या Fast Trek Case निर्दोषो के लिए बन रहे है फांसी का फंदा? जानिए! कुछ हैरान करने वाले मामले...

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Fast Trek Case
क्या Fast Trek Case निर्दोषो के लिए बन रहे है फांसी का फंदा? जानिए! कुछ हैरान करने वाले मामले...

राजस्थान के झालावाड़ में 7 साल की बच्ची से दुष्कर्म के मामले (Fast Trek Case) में एक बेगुनाह को सजा दिलवाकर वाहवाही लूटने के मामले का खुलाशा हुआ है, दरअशल प्रशासन ने 10 दिन में चालान पेश कर निर्दोष नाबालिग (घटना के समय) कोमल लोधा को बालिग मानकर फंसा दिया। कोमल लोधा की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि वकील भी नहीं कर पाया। बचाव में ढंग से पैरवी नहीं होने से पॉक्सो कोर्ट ने 2019 में फांसी की सजा सुना दी। दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार हाईकोर्ट में न्याय मित्र एडवोकेट नितिन जैन के केश लड़ने पर जस्टिस पंकज भंडारी व अनूप कुमार ढंढ की बैंच ने कोमल को निर्दोष बताया।

किन आदेशों पर पुलिस ने कॉमन को बनाया बलि का बकरा

हालांकि तकनीकी वजह से बरी करने की बजाय आजीवन कारावास की सजा दी है। कोर्ट ने केस (Fast Trek Case) री-ओपन किया है और गलत जांच करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने के आदेश दिए है, हाईकोर्ट ने हुए गलत फैंसले पर बेबसी भी जताई और कहा कि ”हम भारी मन और न्याय की उम्मीद के साथ ऐसे जुर्म के आरोपी को उम्रकैद दे रहे हैं जो किसी और ने किया है। भास्कर पड़ताल में सामने आया कि पुलिस ने विधानसभा चुनाव से साढे चार महीने पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री के गृह जिले में हुई इस वारदात की गुत्थी को जल्द सुलझाने के नाम पर निर्दोष को बलि का बकरा बना दिया।”

कोमल लोधा निर्दोष, रिहाई का फैसला सुप्रीम कोर्ट के हाथ में – हाईकोर्ट

हाईकोर्ट का कहना है कि उनके पास सिर्फ सजा के बिंदू पर केस (Fast Trek Case) रिमांड किया था। जब हाईकोर्ट के सामने नए तथ्य आए तो सीमा के परे जाते हुए निर्दोष होने, फिर से जांच करने और गलत जांच करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने का आदेश दिया, साथ में उम्रकैद की सजा भी सुनाई। अपील या रिव्यू होने पर सुप्रीम कोर्ट नए तथ्यों के आधार पर बरी करने या नहीं करने पर फैसला देगा।

क्या था पूरा मामला ? जाने!

आपकी जानकारी के लिए बता दे कि कामखेड़ा, झालावाड़ थाना क्षेत्र में 27 जुलाई 2018 को 7 साल की बालिका घर से गायब हो गई थी, अगले दिन परिजनों ने रिपोर्ट दर्ज करवाई। शाम को लहुलूहान शव बरामद हुआ। पुलिस की जांच में कोई चश्मदीद नहीं मिला। 30 मार्च को कोमल लोधा को गिरफ्तार किया गया. कोमल लोधा को पुलिस ने सिर्फ इस सुचना पर गिरफ्तार किया कि वह वारदात के दिन बच्ची के घर के पास की दुकान पर बैठा था।

दोषियों को छोड़, निर्दोष को फंसाने वाले यह 3 चेहरे

Photo dainik bhaskar news paper
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आनंद शर्मा ने हाईकोर्ट के आदेश पर बताया है कि उन्होंने तो जांच की नहीं, जांच अधिकारी ही इसके बारे में ज्यादा बता सकते हैं। दिनेश मीणा का पक्ष जानने के लिए कई बार फोन किया, उन्होंने रिसीव नहीं किया। जबकि धर्माराम ने बताया कि उन्हें हाईकोर्ट के आदेश का पता नहीं है।

घ्यातना के समय कोमल नाबालिग था। उस समय के स्कूल रिकॉर्ड के अनुसार उसकी उम्र 17 साल 1 महीने थी। जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के अनुसार नाबालिग को गिरफ्तार करने की बजाय बाल सुधार गृह भेजा जाता है, लेकिन पुलिस ने कोमल को गिरफ्तार किया व रिकॉर्ड में एक्स-रे रिपोर्ट के आधार पर बालिग बताया मगर इसे रेडियोलॉजिस्ट की बजाय डॉक्टर ने तैयार किया था।

पीड़िता के कपड़ों पर जो सीमन मिला वह कोमल के डीएनए से नहीं मिला। कपड़ों पर जो सीमन मिला उसमें किन्हीं दो अन्य व्यक्तियों का प्रोफाइल मिला है। हाईकोर्ट ने इस रिपोर्ट के आधार पर केस (Fast Trek Case) को री-ओपन करने का आदेश दिया, और उन दो लोगों को पकड़ने के लिए कहा है, जिन्होंने वारदात को अंजाम दिया। पुलिस ने डीएनए रिपोर्ट आने से पहले ही महज 10 दिन में चालान पेश कर दिया था।

बहन की शादी नहीं हो रही, समाज में बदनामी झेली, गांव से निकल जाने को कहा…

कोमल के 67 साल के पिता हीरालाल ने बताया कि उन्हें और उनके परिवार को कोमल की गिरफ्तारी के बाद परिवार को प्रताड़ना झेलनी पड़ी। कई लोगों ने भला बुरा कहा और गांव छोड़ने के लिए दबाव बनाया। बादमे कुछ लोगो ने समझाया तो गांव छोड़ जाने की नौबत नहीं आई। बदनामी और समाज के दर से कोमल से जेल में मिलना छोड़ दिया। कोमल की बहन कलावती की उम्र 26 साल हो गई है, लेकिन कहीं रिश्ता पक्का नहीं हो रहा। कहीं से भी रिश्ते की बात होती है या रिस्ता लेकर जाते है तो समाज उन्हें बलात्कारी और हत्यारे की बहन बताकर संबंध जोड़ने से इंकार कर देते हैं।

दूसरी तरफ बालिका (मृतक) के परिवार का कहना है कि जिसने भी हमारी बच्ची के साथ दरिंदगी की है उसे फांसी की सजा से कम कुछ भी स्वीकार नहीं है।

क्या है फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट, क्या है काम करने का तरीका

शीघ्र सुनवाई का अधिकार आपराधिक न्याय का सार है और यह कहना गलत भी नहीं होगा कि न्याय में देरी होना न्याय से वंचित होने के बराबर ही आंका जा सकता है. संयुक्त राज्य में, शीघ्र परीक्षण संवैधानिक रूप से सुनिश्चित अधिकारों में से एक है। मानवाधिकारों पर यूरोपीय कन्वेंशन यह भी प्रदान करता है कि गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए सभी को उचित समय के भीतर परीक्षण करने या लंबित मुकदमे को जारी करने का अधिकार होगा। वैसे आपको बता दे कि भारतीय संविधान में एक मौलिक परीक्षण के अधिकार को विशेष रूप से मौलिक अधिकार नहीं माना गया है, लेकिन आपकी जानकारी के लिए बता दे कि अनुच्छेद 21 के व्यापक दायरे में निहित है। अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को उसके जीवन और स्वतंत्रता से वंचित नहीं होने का मौलिक अधिकार मानता है। कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार।

क्यों बनाये गए थे फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट

साल 2000 में 11वां फाइनेंस कमीशन बन था. कमीशन ने अदालतों में पेंडिंग मामलों को निपटाने के लिए 1734 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की राय दी. सैयद अली मोहम्मद खुसरो इसके चेयरमैन थे जो कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व वीसी प्रोफेसर थे. फाइनेंस मिनिस्ट्री ने इसके लिए 502.90 करोड़ रुपये पांच साल के लिए जारी किए और ये पैसे सीधे राज्य सरकारों के पास भेजे गए. ताकि वो अपने यहां के हाईकोर्ट से सलाह-मशविरा करके फास्ट-ट्रैक कोर्ट बना सकें और लटके पड़े मामलों को जल्द से जल्द खत्म करें. इस फैंसले से उम्मीद थी कि 5 साल में पेंडिंग मामलों का निपटारा कर लिया जाएगा.

फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट के लिए कितना खर्च

31 मार्च, 2005 को फास्ट-ट्रैक कोर्ट का आखिरी दिन था. उस वक्त 1562 फास्ट-ट्रैक अदालतें काम कर रही थीं. सरकार ने इनको जारी रखा. 5 साल का वक्त और दिया. 509 करोड़ की राशि भी दी. 2010 में इनका कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया गया. इस कर्येकाल के अंतर्गत 2011-12 में केंद्र से मिलने वाला सहयोग बंद होने वाला था. 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया राज्य सरकारें फास्ट-ट्रैक कोर्ट चलाने या बंद करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हैं. केंद्र सरकार ने 2015 तक फास्टट्रैक कोर्ट चलाने के लिए मदद देने का फैसला किया. केंद्र ने जजों की सैलरी के लिए सालाना 80 करोड़ देने का फैसला किया.

देशभर में नई फास्ट ट्रैक अदालतें बनाई जाएंगी.

जुलाई, 2019 में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में बताया कि 2021 तक देशभर में 1,023 फास्ट ट्रैक अदालतें बनाई जाएंगी. 18 राज्यों ने कोर्ट बनाने पर सहमति जताई है. जिनमें महिलाओं से जुड़े अपराधों की सुनवाई की जायगी, सरकार ने इसके लिए 767 करोड़ के बड़े ख़र्च को मंज़ूरी दे दी है, वैसे आपको बता दे कि जिसमें 474 करोड़ रुपये का ख़र्च केंद्र सरकार उठाएगी.

क्या है फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट के काम करने का तरीका

*फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने का फैसला उस राज्य की सरकार हाई कोर्ट से चर्चा के बाद करती है.

  • सभी पक्षों को सुनने के बाद फास्ट ट्रैक कोर्ट तय टाइमलाइन में अपना फैसला सुनाता है.
    *हाई कोर्ट फास्ट ट्रैक कोर्ट के लिए टाइमलाइन तय कर सकता है कि सुनवाई कब तक पूरी होनी है. टाइमलाइन के आधार पर फास्ट ट्रैक कोर्ट तय करता है कि मामले को हर रोज़ सुना जाना है या कुछ दिनों के अंतराल पर.

क्या है फायदे फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट के

  • फास्ट ट्रैक कोर्ट की डिलीवरी रेट काफी तेज़ है.
  • कई मामलों में फास्ट-ट्रैक कोर्ट ने हफ्ते के अंदर भी दोषियों को सजा सुनाई है.
  • इससे सेशन कोर्ट्स में आने वाले मामलों का बर्डन कम हुआ है.

फास्ट ट्रैक अदालतों में फैसला आ जाने के बाद भी मामले सालों तक ऊपरी अदालतों में अटके रहते हैं. यह है एक उदाहरण

दिल्ली गैंगरेप मर्डर कि अगर बात करे तो यह एक अच्छा उदाहरण है, 16 दिसंबर, 2012 की घटना के बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन का आदेश दिया था. मामले में तय किया गया कि मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक बेसिस पर कि जायगी, केश में कुल छह आरोपी थे, इन आरोपियों में से एक की सुनवाई के दौरान मौत हो गई थी. तो उनमे से एक आरोपी नाबालिग था. सितंबर, 2013 में फास्ट ट्रैक कोर्ट ने सभी आरोपियों को दोषी करार दिया. इनमे से चार दोषियों को फांसी की सज़ा सुनाई गई.
अपील हाईकोर्ट में पहुंची. 2014 में हाईकोर्ट ने मौत की सजा को फास्ट ट्रैक के द्वारा सुनाई सजा को बरकरार रखा. जून, 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इन चारों दोषियों की मौत की सजा पर मुहर लगा दी. अब दोषियों की दया याचिका राष्ट्रपति के पास पेंडिंग है. हाल ही में दिल्ली सरकार ने उनकी दया याचिका खारिज करने की सिफारिश की है. फास्ट ट्रैक कोर्ट बनने के बावजूद घटना के सात साल बाद भी दोषियों को फांसी नहीं हुई.